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पिछले भाग में आपने ने पढ़ा की किस तरह बनारस, करेरी झील और हर की दून की यात्रायें रद्द करते हुए मेरी बस मुझे सांकरी ले आयी। अब आगे बढ़ते हैं।
शायद कोई और भी है…..
मैं अपने कमरे में आ गया। बिना सिग्नल वाले मोबाइल में अंगूठा फिराते हुए कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। रात 9 बजे नींद खुली। तब तक ढाबा बंद हो चुका था। वो मेहमान आया ही नहीं था। अथार्त पूरी बिल्डिंग में मैं अकेला और बिजली भी नहीं। कमरे की बाल्कनी से मोबाइल की रौशनी में बाहर देखा तो भालू घूम रहा था।
वैसे तो सभी लोग कहते हैं की भूत – वूत कुछ नहीं होता I यह केवल मन का वहम है I स्वयं पर अंधविश्वासी होने का ठप्पा ना लग जाये इसलिये मैं भी कयी बार लोगो की हाँ में हाँ मिला देता हूँ, लेकिन क्या करें दिमाग के एक कोने में भूतों ने भी फ़्लैट ले रखा है I
अब तक दिमाग में भूतों ने अपने फ़्लैट से निकल कर विचरण करना शुरू कर दिया था I जितने भी भूतीया सीरीयल अब तक देखे थे सबकी कहानियाँ याद आने लगी I
तभी एक एक मित्र के साथ अंडमान के गेस्ट हाउस में घाटी घटना याद आ गयी I रही सही कसर इस घटना ने पूरी कर दी थी I शायद ऐसी भूतिया सोच का ही परिणाम था की मुझे परदों के पीछे कुछ आकृतियां दिखने लगी थी I डरते हुए सबसे पहले मैंने बाथरूम के दरवाज़े बंद किये और फ़िर परदों को टटोल के अपने मन को आश्वस्त किया I
फटा – फट रजाई में छुप कर हनुमान चालिसा पढ़ते हुए सोने को कोशिश की I


तीसरा दिन
सुबह नींद खुली तो 6 बज चुके थे और मौसम में अच्छी – खासी ठंडक थी और बाहर राजेंद्र प्रतीक्षा कर रहे थे। अपने साथ लाये हुए तीनों टीशर्ट पहनकर उनकी बाजु ठीक करते हुए ढाबे पर पहुंचा। चाय और परांठे बन चुके थे।
रात भर हुई बारिश के बाद अब अच्छी धुप निकल चुकी थी। हिमालय के ठन्डे मौसम की धुप में छोटे से गिलास में चाय पीने का विचार ही मन को खुशियों से भर देता है। ढाबे के चबूतरे पर चाय पीते हुए मैं भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था। सामने से आती हुई गुनगुनी धुप और ढाबे के चूल्हे से निकलते हुए धुयें ने मानों 100 साल पुरानी दुनिया में पहुंचा दिया हो। कुछ लोग तालुका से जीप में सवार हो कर शोर मचाते हुए आ रहे थे।
सांकरी में बाकि सुविधायें हों या न हों, लेकिन आठवीं तक का स्कूल अवश्य है और बगल वाले सौंड़ गाँव में तो बारहवीं तक का भी सरकारी स्कूल है। उन्हीं स्कूलों से आती प्रातः प्रार्थना की आवाज़ों ने बचपन की याद दिला दी। शहरों में अब कहाँ दिखता है यह सब। अब तो यहाँ केवल एक टेप बजा कर इति श्री कर ली जाती है। कुछ बुद्धिजीवियों ने तो इन प्रार्थनाओं पर भी रोक लगाने की मांग कर दी है क्योंकि ये प्रार्थनायें उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाती हैं।



कुछ परांठे और एक दराती (हसिया) बैग में रखे और निकल पड़े केदारकांठा बेस कैम्प की ओर। कुछ ही दूरी पर गोविंद वन्य जीव विहार का प्रवेश द्वार बना हुआ है। यहाँ नैटवाड़ में बनवाया गया परमिट चेक किया जाता है। लगभग 200 मीटर चलने के एक पगडण्डी दायीं दिशा में ऊपर की ओर जाती है। वैसे यदि आप पहली बार आयें और आपके पास गाइड न हो तो आप को पता भी नहीं चलेगा की ट्रेकिंग आरम्भ कहाँ से होती है। रात भर हुई बारिश के कारण भयंकर कीचड़ हुआ पड़ा था। पहले कदम से ही यात्रा कठिन हो जाती है। यहाँ कोई मानव निर्मित पथ नही है। केवल जंगलों से होकर गुज़रते जाना है। यहाँ मुझे गाइड की अनिवार्यता महसूस हुई। इस मार्ग पर बिना गाइड जाना खतरे को बुलावा देना है। आप किसी भी क्षण रास्ता भटक सकते हैं और किसी जानवर का फ़ास्ट फ़ूड बन सकते हैं। संक्षेप में यही कहना उचित होगा की बिना गाइड जाने पर आपके साथ ‘मैन वर्सेज़ वाइल्ड’ होने की प्रबल संभावना है।
जंगलों के बीच से गुज़रते रहे। हिमालय की ख़ूबसूरती को निहारने का इससे अच्छा अवसर फिर कभी मिले या न मिले, इस लिए एक – एक दृश्य को अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर रहा था। यहाँ से एक ओर रूपिन पास के दर्शन होते हैं और दूसरी ओर हर की दून पर्वत माला के। गाइड ने बताया के वह अपने 15 साल के करियर में इस क्षेत्र के सभी ट्रैक्स पर लोगों को ले जा चुके हैं।
रूपिन पास को पार कर के आप हिमाचल प्रदेश की सांगला घाटी की पहुँच सकते हैं और इस ट्रैक में लगभग 7 दिन लगते हैं।
हर की दून मार्ग पर भारत के अंतिम गांव सीमा से एक मार्ग बाली पास की ओर जाता है और उसे पार करके आप यमुनोत्री धाम भी पहुँच सकते हैं। इस मार्ग को पूरा करने में भी लगभग 7 दिन लगते हैं। कुछ ट्रैकर्स गंगोत्री तक भी जाते हैं।
सबसे बड़ी बात तो आपको बताना भूल ही गया। हिमालय का वृद्ध पुरुष अथार्त चौखम्बा पर्वत यहाँ से भी दिखायी देता है। कभी – कभी तो ऐसा लगता है की यह एवरेस्ट से भी विशाल है।



कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक लकड़ी का पुल नज़र आया। यहाँ ऐसे कयी पुल बने हैं। यह एक बेहद घना जंगल है। कुछ स्थानों पर तो दिन में भी अँधेरा भी हो जाता है। इसी जंगल में कुछ स्थानों पर लकड़ी की झोपड़ियां बनी हुई हैं। कुछ आगे बढ़ने पर एक छोटा सा बुग्याल दिखाई दिया। यहाँ कुछ अखरोट और सेब के पेड़ हैं। यहाँ से केदारकांठा पर्वत माला के दर्शन भी होने लगते हैं। कुछ देर विश्राम करने के बाद हम बढ़ चले आगे की ओर।
लगभग 5 घंटो की यात्रा के बाद हम थे अपने पहले पड़ाव ‘जुड़ा का तालाब’ के सामने। यह एक छोटा सा तालाब है। सर्दियों में यह जम जाता है। अभी तो बर्फ़ नहीं थी। देवदार के पेड़ों से घिरा यह तालाब कुछ ज़्यादा तो नहीं लेकिन खूबसूरत है। सांकरी से लाये हुए परांठे यहाँ निपटाये, कुछ फोटो लिये और फिर चल पड़े आगे की ओर। जंगलों के टेढ़े – मेढ़े रास्तों से गुज़रते हुए हम पहुँच चुके थे केदारकांठा बेस कैम्प पर। केदारकांठा जाने वाले ट्रैकर्स के टैंट यहाँ लगे हुए थे।
बेस कैम्प तक पहुँच कर केदारकांठा चोटी तक जाने की प्रबल इच्छा थी लेकिन उसके लिये एक दिन और चाहिए था। केवल अतिरिक्त समय ही नहीं और भी व्यवस्थाओं जैसे टैंट, स्लीपिंग बैग और राशन आदि की भी आवश्यक्ता थी जो की मेरे पास तो नगण्य थी। यह स्थान बहुत सुन्दर है। यहाँ से रूपिन पास का विशाल रूप दिखाई देता है। भोले नाथ ने चाहा तो कभी वहां भी आपको ले चलेंगे।
लगातार फोटो लेने के कारण मोबाइल की बैटरी डाउन हो चुकी थी, इसलिए बेस कैम्प के फोटो नहीं ले पाया।
15 मिनट यहाँ बिताने के बाद वापस चल पड़े। बारिश होने की संभावना थी किन्तु हुई नहीं। शाम 4 बजे तक हम सांकरी पहुँच चुके थे। चाय पीने के बाद मैं अपने कमरे में चला गया। नींद तो आ रही थी किन्तु मैं सोना नहीं चाहता था क्योंकि शाम को ग्रामीण दर्शन पर भी निकलना था।







सांकरी और सौंड़
कुछ देर बाल्कनी से पहाड़ों को निहारने और आराम करने के बाद शाम होते ही मैं निकल पड़ा सांकरी और सौंड़ गांवों की यात्रा पर। यहाँ ज़्यादातर घर लकड़ी के बने हुए हैं। शहरी सुविधाओं से ये गांव बहुत दूर हैं और इसी कारण शहरी समस्याओं जैसे प्रदुषण आदि से भी बचे हुए हैं। आज यहाँ के काल भैरव मंदिर में कोई विशेष पूजा थी। मंत्रोच्चार से वातावरण गुंजायमान था। वैसे तो क्षेत्र की में हिन्दू आबादी की बहुलता है किन्तु यहाँ की परम्परायें अन्य उत्तर भारतीय क्षेत्रों से काफ़ी अलग हैं।
शायद आपने सुना होगा की उत्तराखंड के ओस्ला गाँव में महाभारत के प्रमुख ख़लनायक दुर्योधन की पूजा होती है। यह सत्य है किन्तु अधूरा सत्य। यह पूजा केवल ओस्ला में ही नहीं अपितु यहाँ के 22 गाँवों में होती है। दुर्योधन और कर्ण इनके मुख्य आराध्य हैं। गाइड ने बताया था की महाभारत युद्ध में यहाँ के लोग दुर्योधन की सेना में शामिल थे।
सभी 22 गांवों में दुर्योधन के मंदिर हैं जिन्हे सोमेश्वर के नाम से जाना जाता है। सभी मंदिर एक ही शैली में बने हुए हैं। मंदिर 22 हैं किन्तु मूर्ति एक ही है। उसी मूर्ति को एक निश्चित समय के अंतराल पर एक गाँव से दूसरे गाँव में स्थानांतरित किया जाता है। जब मूर्ति गांव में पहुँचती है तो वहां मेला लगता है। अभी यह मूर्ति जखोल में है और मई 2018 में सौंड़ पहुंचेगी। तब यहाँ भी मेला लगेगा।
वैसे सांकरी और सौंड़ में से कौन अधिक सुन्दर है, इसकी चयन करना बहुत मुश्किल है किन्तु मुझे सौंड़ अधिक सुन्दर लगा। इसका कारण है यहाँ बना सोमेश्वर मंदिर (दुर्योधन मंदिर), दूर – दूर तक हर की दून पर्वतों के होते दर्शन, लकड़ी के मकान और यहाँ की संस्कृति। वैसे लकड़ी के मकान खूबसूरत तो लगते हैं किन्तु जंगल की आग में भयंकर विनाश भी होता है। मंदिर प्रांगण में कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। मैं भी कुछ देर वहीं बैठा रहा।
अँधेरा होने से पहले मैं ढाबे पर वापस आ चुका था। यहाँ वरिष्ठ वन अधिकारी, एक पुलिस और राजेंद्र पहले से मौजूद थे। मैं भी उनके साथ बातों में व्यस्त हो गया। उनके साथ बातों में व्यस्त था की तभी ढाबे वाली ने आवाज़ लगायी की खाना बन गया है, आ जाओ। वैसे कहने तो यह ढाबा था किन्तु इन लोगों का व्यवहार किसी अपने जैसा ही था। ढाबे में चूल्हे बनती रोटी और उसके पास ही बोरे पर बैठ कर खाने में घर जैसा आनंद आ गया। केवल 60 रुपये में ही आप यहाँ भर पेट खाना खा सकते हैं।
आज कमरे में मैं अकेला नहीं था और बिजली भी थी। मेरे साथ एक मेहमान और था। यह एक राहत देने वाली बात थी। उनका नाम तो नहीं पूछा लेकिन यह जानकर अच्छा लगा की वे हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियर्स पर शोध कर रहें हैं। उम्र भी कोई ज़्यादा नहीं ! यही कोई 28 वर्ष होगी। उन्होंने ने बताया की वे पहले गुरुग्राम के कॉल सेंटर में नौकरी करते थे लेकिन वहां वे संतुष्ट नहीं थे। इसी कारण यह नौकरी छोड़ कर निकल पड़े पहाड़ों की ओर अपना शौक पूरा करने। यहाँ वे लोगों को ट्रैकिंग करवाते हैं और अपना शोध कार्य जारी रखे हुए हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो ऐसा साहस दिखा पाते हैं।
उन्होंने कहा के वे अभी दुकान से होकर आते हैं। ऐसा कह कर वे चले गए। मुझे तो लगा की आज फिर अकेले ही रहना पड़ेगा लेकिन 3 घंटे बाद रात 11 बजे वो आ चुके थे और तब तक मै सो चुका था।






चौथा दिन
आज वापसी का दिन था। सुबह 5 बजकर 30 मिनट की पहली बस थी देहरादून के लिए और अगली बस 8 बजे की। मै सुबह 5 बजे ही बस स्टैंड पहुँच गया। चाय पी और सीट घेर ली। मौसम में ठंडक तो थी लेकिन इतनी भी नहीं की जिस हिसाब से मैंने स्वयं को कम्बल से लपेट रखा था। कुछ ही देर में बस चल पड़ी। सांकरी और उसके आस – पास के गांवों में सेब के बागान भरपूर मात्रा में हैं। कुछ लोगों ने अखरोट के पेड़ भी लगा रखे हैं। सुपिन नदी के किनारों से जाती हुई बस में कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला।
आँख खुली तो बस नौगांव पहुंच चुकी थी। यहाँ पहला पड़ाव था। कुछ देर रुकने के बाद बस पहुंची अगले पड़ाव डामटा। यहाँ दोपहर का भोजन किया और कुछ तफ़री भी की। थोड़ी ही देर में हम चल पड़े देहरादून की ओर।
लगभग 3 बजे तक बस देहरादून पहुँच चुकी थी। पहाड़ों से दूर जाने का मन तो किसी का नहीं होता लेकिन कुछ जिम्मेदारियां भी होती है। खैर.. यहाँ से पीछे मुड़ कर देखा और हाँथ हिला कर पहाड़ों को अलविदा किया।
उम्मीद है की आपको यह यात्रा पसंद आयी होगी।
सांकरी की आखिरी चाय


मिलते हैं अगले सफ़र पर।
धन्यवाद।
आपको केदारकंठा जाना चाहिए….केदारकंठा से हिमालयं के और अच्छे नजारे मिलते …वैसे आपकी unplanned solo घुमक्कड़ी अच्छी लगी…
Thanks. Mai Jana chahta tha lekin budget kundli mare baitha tha
Superb photography with sublime description. I also accomplished this trek in 2013.beautiful landscape
Thanks Rajendra